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उपन्यास

अथ मूषक उवाच

सुधाकर अदीब


विक्रमादित्य दरोगा जी बड़े धर्मप्राण आदमी थे। रोज सुबह उठकर चौकी के प्रांगण में स्थित पीपल के पेड़ के नीचे प्रतिष्ठित शिवलिंग पर प्रेमपूर्वक जल चढ़ाते। कुछ देर ध्यान करते। फिर पीपल की सात बार प्रदक्षिणा करके भीगा हुआ चना स्वयं खाते और सूखा चना वानरों को खिलाते। इसके बाद ही उनकी सरकारी दिनचर्या प्रारंभ हुआ करती थी।

बैजू बावरा बड़े मौके से मिल गया था। इन दिनों 'क्राइम-वीक' अर्थात अपराध सप्ताह चल रहा था। शातिर गुंडे-बदमाशों की धरपकड़ जारी थी। दरोगा जी के भक्तिभाव का ही यह कमाल था कि बिना कुछ विशेष किए-धरे उन्हें राह-चलते बैजू जैसे जेबकतरे और उठाईगीरे मिल जाया करते थे। दरोगा जी अब उसी कार्य में जुटे थे।

आखिरकार बैजू का चालान कई सुविधाजनक धाराओं में कर दिया गया। तत्पश्चात चौकीवासियों ने उसके बक्से और बिस्तरबंद को उलट-पलटकर इस प्रकार मुआयना किया मानो वह किसी नई-नवेली दुल्हन द्वारा साथ में लाया गया दहेज का सामान हो। सारा सामान सहेजकर अंदर एक कोने में सलीके से रख दिया गया।

बैजू को अदालत के लिए रवाना करते हुए मोटू-पतलू सिपाही जी और दरोगा जी सभी के करुणाविगलित मुखारविंद देखते ही बनते थे। इतना स्नेह और आत्मीयता तो किसी लड़की को ससुराल भेजते समय उसके मायके वाले भी नहीं दिखाते हैं। बैजू ने जब दरोगा जी के पाँव छुए तो उनसे यह कहे बिना नहीं रह गया कि - ''अपना खयाल रखना। फिर मिलेंगे।''

उधर बैजू अश्रुपूरित नेत्रों के साथ हाथ में हथकड़ी बँधवाए हुए भारी कदमों से पतले वाले सिपाही के साथ रवाना हो गया। विक्रमादित्य हताश भाव से उसकी लचकती हुई कमर को नजरों से ओझल होने तक एकटक देखते रहे।

ऐसा नहीं था कि दरोगा जी का काम केवल भाग्य भरोसे ही चलता था। वह पुरुषार्थ में भी गहरा विश्वास रखते थे। उनकी धार्मिक प्रवृत्ति के चर्चे आम होने के कारण संगम तट पर 'वी.आई.पी. ड्यूटी' के लिए प्रायः उन्हें ही लगाया जाता था।

अकस्मात चौकी का वायरलेस सेट बोलने लगा। चौकी इंचार्ज विक्रमादित्य पांडे को तत्काल सर्किट हाउस पहुँचकर एक वी.आई.पी. को संगम पर स्नानार्थ ले जाने का हुक्म मिला। ज्यादा मालूमात करने पर जानकारी मिली कि माननीय खेल-कूद एवं चमड़ा मंत्री हीरालाल जी सपरिवार गंगा-स्नान हेतु सर्किट हाउस पधारने वाले हैं।

मैंने भी उसी क्षण निर्णय ले लिया कि यही उचित अवसर है जब मैं भी लगे हाथों गंगा-स्नान का पुण्यलाभ उठा लूँ। क्योंकि क्या जाने गंगा-स्नान का फल ही मुझे इस मूषक-योनि से आगे चलकर छुटकारा दिला दे। मैंने प्रत्युत्पन्नमति से काम लिया और दरोगा जी की मोटरसाइकिल के टूलबॉक्स में येन केन प्रकारेण घुस जाने में कामयाब हो गया। अगले ही पल मैं और पांडे दरोगा हवा से बातें कर रहे थे।

सर्किट हाउस पर बड़ी भीड़ थी। एक लाल बत्ती की गाड़ी पोर्टिकों में खड़ी थी जिस पर फूलमालाएँ लदी थीं। मंत्री जी विशिष्ट सूट के भीतर थे। बाहर तीन-चार स्याह काले अरबी ड्रेसनुमा कपड़ों में स्टेनगनधारी अंगरक्षक किसी काल्पनिक आततायी से मोर्चा लेने की मुद्रा में अकड़े खड़े थे। वी.आई.पी. के लिए 'सर्वोच्चकोटि का जीवनभय' घोषित होने के कारण उनके लिए काली बिल्ली-कमांडो-सुरक्षा-व्यवस्था चौंबीसों घंटे मुहइया रहा करती थी।

एक झकाझक सफेद वर्दी और पगड़ी में सजा हुआ भला-सा आदमी विशिष्ट सूट का दरवाजा खोलकर एक-एक आगंतुक को भीतर-बाहर कर रहा था। हाथ में एक छोटी-सी कितबिया और पेन लिए एक आधा-बाबू और आधा-नेतानुमा व्यक्ति लोगों से पूछ-पूछकर उन्हें मंत्री जी से मिलवा रहा था।

उधर लोगों का एक बहुत भारी हुजूम चमड़ा उद्योग से लेकर अपने गाँव मुहल्ले-टोले की बिजली-पानी-छप्पर और नाली तक की समस्याओं को लेकर मंत्री जी का इंतजार कर रहा था। भीतर मंत्री जी बमुश्किल तमाम एक प्याला चाय पी पा रहे थे। बराबर वाले दूसरे सूट में उनकी पत्नी तथा उनकी एक बिटिया नाश्ता-पानी से निवृत्त होकर मंत्री जी के खाली होने की प्रतीक्षा में एक घंटे से अपनी अँगुलियाँ चटका रही थीं।

तभी मंत्री हीरालाल जी बाहर निकले और उन्मत्त भीड़ ने उन्हें घेर लिया। दो-चार समर्थकों ने उनके नाम का जयघोष भी किया। मंत्री जी ने पहले अपने दोनों हाथ जोड़े और उन्हें अपनी छाती के समानांतर रखकर लोगों का अभिवादन स्वीकार किया। किंतु जब उन्होंने यह पाया कि जनता-जर्नादन की तादात ज्यादा है तो अपने दोनों जुड़े हुए हाथों को एक मीनार की शक्ल में अपने सिर से ऊँचा कर दिया।

सुरक्षाकर्मी बड़ी बहादुरी से लोगों की भीड़ को ततैयों की भाँति इधर-उधर हड़ाते हुए 'वी.आई.पी.' को उनकी कार में लाकर बिठा पाए। उनकी कार की पिछली कार में उनका परिवार भी लगभग लांग-जंप मारता हुआ सवार हो गया। जब तक लोग सँभलें-सँभलें मंत्री जी का काफिला यह जा, वह जा। जाते-जाते वह इतना अवश्य कह गए कि - ''मैं यहाँ अपने पी.ए. साब को छोड़े जा रहा हूँ। आप लोग अपने प्रार्थनापत्र उन्हें सौंप दें।''

वी.आई.पी. काफिले में सबसे आगे विक्रमादित्य दरोगा जी मोटरसाइकिल पर सवार थे और मैं भी उनके साथ ही यात्रा कर रहा था। इस प्रकार मैं मंत्री हीरालाल जी की पायलेटिंग का मुफ्त में मजा ले रहा था।

दोपहर का समय था। वी.आई.पी. अपने व्यस्ततम समय में से समय निकालकर गंगा-स्नान हेतु पधारे थे। संगम-तट पर कोई विशेष भीड़-भाड़ नहीं थी। अतः वहाँ नहाना अब अपेक्षाकृत और भी सुगम था। जब मंत्री जी ने अपने पाँव कार से बाहर रेती पर उतारे तभी मैंने प्रथम बार उनके निकट से दर्शन किए। मुझे उनका चेहरा कुछ-कुछ जाना-पहचाना-सा लगा।

स्मृति-तलैया में कहीं से आकर एक कंकर गिरा और उसमें गोल-गोल लहरें नाचने लगीं। नर्तन करती हुई लहरों में मुझे जो दृश्य दिखाई दिया उसने मुझे जैसे अचानक सोते से जगा दिया। मुझे अपना पूर्वजन्म याद आ गया। मैंने देखा कि - दो नटखट से बालक एक आम की बगिया में एक पेड़ पर चढ़कर कच्चे आम खा रहे हैं... उनमें से एक लड़का तो मैं स्वयं हूँ... दूसरा कोई और नहीं अपने यही हीरालाल जी हैं... बाल्य अवस्था में... हे प्रभु! यह कैसी विडंबना है! हीरालाल मंत्री बन गया और मैं एक चूहा बना हुआ आज इस प्रकार से दर-दर की ठोकरें खा रहा हूँ। मन अचंभे और अवसाद दोनों ही भावों से संयुक्त हो गया।

जब मैंने अपनी स्मृति पर कुछ और दबाव डाला तो मेरा अतीत किसी चलचित्र की भाँति मेरे सामने घूमने लगा - ''चल जितेंदर!... अब निकल लें... नहीं तो प्रधान जी पकड़ लेंगे।'' हीरालाल मुझसे कह रहा था...

मुझे याद आया कि मेरा नाम जितेंद्र सिंह था और मैं ग्राम-प्रधान गब्बर सिंह का इकलौता बेटा था। हालाँकि मैं एक अमीर बाप का बेटा था और हीरालाल एक गरीब पिता की चौथी संतान, फिर भी हम दोनों में प्रगाढ़ मैत्री थी। हम दोनों समवयस्क थे और एक ही पाठशाला में कक्षा पाँच में साथ-साथ पढ़ते थे। मेरे पिताजी एक बड़े दबंग किस्म के प्रधान थे और उनकी मर्जी के बगैर उनकी ग्राम-सभा में एक पत्ता भी नहीं हिलता था। यही नहीं, आसपास के कई गाँवों के भी लोग उनके नाम से भय खाते थे।

प्रधान जी को मेरी 'बुधई' के पुत्र 'हीरा' के साथ मित्रता बिल्कुल पसंद नहीं थी। उनकी दृष्टि से सोचा जाए तो एक बड़े किसान और ग्राम प्रधान के बेटे का उसी के एक हलवाहे के बेटे के साथ कैसा मेल? लेकिन इकलौती संतान होने के नाते पिताजी मेरा कोई खास विरोध भी नहीं कर पाते थे। इसलिए मैंने भी उनके पुत्रमोह का नाजायज फायदा उठाते हुए तरह-तरह की मनमानियाँ करने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी।

अभी हीरालाल मुझसे आमों की बगिया से खिसक लेने की बात कह ही रहा था कि पिताजी गब्बर सिंह की एक कड़कदार आवाज सुनाई दी - ''कौन है वहाँ?''... सामने के पेड़ पर...''

''अरे बाप रे!...'' हीरालाल के मुँह से निकला। वह डाल पकड़कर झूला और धम्म से धरती पर चू पड़ा... मैंने पिताजी को लंबे डग भरकर आते हुए देखा... मैं भी झटपट वृक्ष के तने को सावधानी से पकड़ता हुआ फुर्ती से नीचे उतरा... तब तक हीरा लँगड़ाता हुआ भागकर बगिया से नौ दो ग्यारह हो गया...

पिताजी ने पास आकर कोमलता से परंतु गंभीर वाणी में कहा - ''क्यों रे जितेंदरवा!... नहीं मानेगा तू?...'' उन्होंने मेरा एक कान हलके से उमेठा... और वह दृश्य धुँधला पड़ गया।

मैं पुनः वर्तमान काल में लौट आया। मैंने देखा कि मंत्री बने हुए हीरालाल और उसका परिवार गंगाजी में घुसकर इस समय स्नानरत था तथा उसके साथ आया सरकारी अमला कुछ दूरी पर खड़ा पान-बीड़ी-सिगरेट में तल्लीन हो चुका था। कुछ एक सुरक्षाकर्मियों की लापरवाह निगाहें अभी भी माहौल का उड़ता-उड़ता-सा जायजा ले रही थीं।

मैं भी दरोगा जी की मोटरसाइकिल के टूलबॉक्स का परित्याग करके संगम-तट की रेती पर उतर गया। रेत मुझे गुनगुने रेगिस्तान सी लगी परंतु ज्यों-ज्यों मैं भागकर गंगा-तट की ओर जाने लगा, वही रेत आगे शीतल होती गई। मैंने भी गंगा-तट का एक कोना पकड़ा और धीरे से जलराशि में उतर गया।

गंगाजल का स्पर्श होने ही तन और मन का ताप तिरोहित हो गया। कुछ पल के लिए मैं भूल गया अपने वर्तमान मूषकस्वरूप को। अपने भूतकालीन मानवस्वरूप को। भूल गया मैं बचपन के मित्र हीरा को। आज के मंत्री हीरालाल को। गंगा मैया की स्नेहिल गोद में उनकी लहरों में अठखेलियाँ करता हुआ मैं सारे संसार को भूल गया। स्नान करते हुए कुछ देर बाद मुझे चेतना हुई कि अब जल के बाहर भी निकलना आवश्यक है।

उसी समय मैंने देखा कि हीरालाल की पत्नी और पुत्री नहाकर कपड़े बदलने में संलग्न थीं, जबकि हीरालाल अभी भी कमर तक पानी में गंगा जी में खड़ा हुआ अपनी दोनों हथेलियों को जोड़कर सूर्य भगवान को गंगाजल से अर्घ्य दे रहा था।

मैं अब स्वयं को रोक नहीं सका और अपनी नन्हीं-सी-काया के साथ तैरता-तैरता हीरालाल के बहुत निकट पहुँच गया। मेरा दिल किया कि उससे कहूँ ''क्यों रे हीरा! अब तो बड़े ठाठ हैं तेरे!... मुझे पहचाना?... मैं हूँ तेरा बचपन का यार जितेंदर।''

लेकिन मैं कहूँ तो कैसे? मेरी वाणी तो अब मूषक वाणी थी। यह ठीक है कि मैं मानव-भाषा स्वयं तो भली भाँति समझ सकता था, परंतु मानवों की बोली बोलना तो मेरे लिए संभव नहीं था। अब तो मैं केवल एक ही बोली बोल सकता था और वह भी चूहे की। इसलिए मैं मन मसोसकर रह गया। भावावेश में मेरी आँखें छलक आईं।

मैंने सोचा कि भले ही हीरालाल मेरी जुबान अब न समझ सके, पर आखिरकार है तो वह मेरा पुराना मित्र ही। हमारी दोस्ती भी कोई ऐसी-वैसी नहीं थी। कृष्ण और सुदामा की मैत्री थी हमारी। मेरे हीरा पर एक नहीं कई अहसान थे। क्या वह बचपन के मेरे सारे अहसानों को अब भूल गया होगा? कदापि नहीं। मेरा हीरा ऐसा नहीं हो सकता। यदि किसी तरह अपने आप को सही-सही उसके समक्ष अभिव्यक्त कर दूँ तो आज मैं चाहे जिस हाल में हूँ और जैसा भी हूँ, मेरा मित्र निश्चय ही मुझे अपने सिर-आँखों पर बिठा लेगा।

यही सब विचार करता हुआ मैं एक लहर की झोंक में हीरालाल के अत्यंत सन्निकट पहुँच गया और सूर्यदेव को अंतिम बार अर्घ्य देने के लिए जैसे ही उसने अपनी दोनों हथेलियों की अंजुरी जल में डालकर ऊपर उठाई मैं भी उस जलांजलि में छनकर उठ आया।

मुझ पर दृष्टि पड़ते ही हीरालाल ने घबराकर जलांजलि को तत्काल नीचे गिरा दिया और दोनों हाथों से जोर-जोर से पानी उछालकर 'हुश-हुश' करता हुआ वह मुझ चूहे को अपने से दूर बहाने लगा। इसी प्रयास में हीरालाल की भीगी हुई धोती की लाँग भी खुल गई और वह उसका सिरा समेटता हुआ शीघ्रतापूर्वक रेतीले तट पर वापस भागा।

पानी से बाहर आकर मेरा हीरा फिर से मंत्री हीरालाल बन गया। उसके अर्दली ने लाकर एक दूधिया धोती-कुर्ता तथा अधोवस्त्र पहनने को दिए। हीरालाल जी ने उन्हें विधिवत् धारण किया। अर्दली ने तत्पश्चात एक लकड़ी की खड़ाऊँ लाकर उनके चरणों के निकट रखी। अभी संगम स्थित लेटे हुए विशालकाय हनुमान जी महाराज के मंदिर का उन्हें दर्शन जो करना था।

अब तक मैं भी गंगा जी से बाहर आ चुका था। इससे पहले कि मंत्री जी का अर्दली उनके रेती में पड़े हुए जूते उठाकर उनकी कार में रखता, मैं सबकी नजरें बचाकर मंत्री जी के एक जूते में घुस गया। अपने मित्र हीरालाल के व्यामोह से अभी भी मैं स्वयं को अलग नहीं कर पाया था। इसलिए मैंने अब उसी के साथ उसकी कर्मस्थली अर्थात राजधानी लखनऊ तक जाने का संकल्प कर लिया था।

जूते कार में रख लिए गए। कारों का काफिला वापस चल दिया। अब मैं मंत्री हीरालाल के साथ उनके परिवार के सदस्यों के बीच पहुँच चुका था। परिवारजन लेटे हुए हनुमान जी महाराज का दर्शन करने के उपरांत कार में ही बैठे-बैठे डिब्बों में लाया गया 'पैक्ड लंच' खा रहे थे और मैं उनके पैरों के आसपास गिरने वाली उनकी जूठन से ही संतुष्ट था।


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